इस ज़मीं से आसमां तक
तू दिखे, देखूं जहां तक
उसने बेशक ना सुना हो
बात तो आई जुबां तक
मैं तो तन्हा था मुसाफिर
लुट गए याँ कारवां तक
यूँ चिराग-ए-शब बुझा था,
हाथ न आया धुआं तक
हद सितम की हो गयी अब,
चीख बैठे बेज़ुबां तक
तू दिखे, देखूं जहां तक
उसने बेशक ना सुना हो
बात तो आई जुबां तक
मैं तो तन्हा था मुसाफिर
लुट गए याँ कारवां तक
यूँ चिराग-ए-शब बुझा था,
हाथ न आया धुआं तक
हद सितम की हो गयी अब,
चीख बैठे बेज़ुबां तक
यूँ चिराग-ए-शब बुझा था,
ReplyDeleteहाथ न आया धुआं तक
हद सितम की हो गयी अब,
चीख बैठे बेज़ुबां तक
बहुत खूब ...अच्छी गज़ल
हद सितम की हो गई अब
ReplyDeleteचीख बैठे बेजुबां तक
क्या बात कही है..
सरल और कम शब्दों में बहुत गहरे भाव।
ग़ज़ल पसंद आई।
प्यारी लगी ये ग़ज़ल
ReplyDeleteबेहतरीन पंक्तिया.......
ReplyDeleteकम शब्दों की एक बेहद उम्दा गजल। आभार।
ReplyDeleteक्या शेर कहे हैं आपने, बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल है !
ReplyDeleteसार्थक गजल.....
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं.
सुन्दर रचना, बहुत सार्थक प्रस्तुति
ReplyDelete, स्वाधीनता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें .
सुन्दर रचना, बहुत सार्थक प्रस्तुति
ReplyDelete, स्वाधीनता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें .
मैं तो तन्हा था मुसाफिर, लुट गए याँ कारवां तक...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया शेर...
हद सितम की हो गई अब, चीख उठे बेज़ुबां तक...
वाह क्या शेर है...
बेहतरीन ग़ज़ल साहिल साहब...
साहिल जी
ReplyDeleteबढ़िया ग़ज़ल है जनाब …
हद सितम की हो गई अब
चीख बैठे बेज़ुबां तक
कमाल का शे'र है … बेमिसाल !
मुबारकबाद कुबूल फ़रमाएं …
रक्षाबंधन एवं स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओ के साथ
-राजेन्द्र स्वर्णकार
ek baar phir bahut kamal ki gazal kahi hai bhai,aur wo aakhri sher to bahut achcha laga.
ReplyDeleteबेहतरीन , उम्दा
ReplyDeleteumda gazal
ReplyDeleteSaare hi sher bahut khoobsoorat hai bhai! Mubarak ho! :)
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