November 24, 2010

ख़त तुझे मैंने बेहिसाब लिखे

कोई ऐसी भी इक किताब लिखे
सब सवालों के सब जवाब लिखे

हमने काली स्याह रात में भी
जगमगाते हुए से ख्वाब लिखे

कोई चेहरा भला पढूं कैसे
सबके चेहरों पे हैं नकाब लिखे

अब यहाँ हो रही नीलाम कलम
कौन है जो के इन्कलाब लिखे

कोई माली है जो नसीब लिखे
कहीं कांटे कहीं गुलाब लिखे

ये अलग बात, भेजता ही नहीं 
ख़त तुझे मैंने बेहिसाब लिखे

जाने 'साहिल' तुझे हुआ क्या है
इक ज़रा मौज को सैलाब लिखे

November 15, 2010

ये चार दिन की चांदनी अच्छी नहीं लगती मुझे

आँखों मैं तेरे बेबसी अच्छी नहीं लगती मुझे
इतना न रो के ये नमी अच्छी नहीं लगती मुझे


फिर इस अँधेरी रात में, सोना नहीं भाता मुझे
ये चार दिन की चांदनी अच्छी नहीं लगती मुझे


खोया हूँ उसकी याद में, बाद-ऐ-सबा न शोर कर
वक़्त-ऐ-इबादत दिल्लगी अच्छी नहीं लगती मुझे


तेरे लिए छुपता फिरूं मैं कब तलक यूँ मौत से
इतनी तो तू ऐ ज़िन्दगी! अच्छी नहीं लगती मुझे


मैंने ये पूछा 'आप क्यों पढ़ते नहीं मेरी ग़ज़ल?'
वो हंस के बोले 'बस यूँ ही, अच्छी नहीं लगती मुझे'


कहता है दिल की बात क्यों  'साहिल' भला तू गैर से,
बस इक यही आदत तेरी अच्छी नहीं लगती मुझे



****************************************
बाद-ऐ-सबा = सुबह की हवा, morning breeze
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...