January 07, 2011

मेरे दामन से उलझे हैं, खिज़ां के ख़ार बाकी हैं

हमारी ज़िन्दगी के अब जो दिन दो चार बाकी हैं
न हो दीदार-ऐ-हुस्न-ऐ-यार तो बेकार बाकी हैं

न बदली फितरत-ऐ-लैला-ओ-कैस-ओ-शीरी-ओ-
फरहाद
वही आशिक हैं ज़िन्दा, उनके कारोबार बाकी हैं

मैं कैसे लुत्फ़ लूं यारो, अभी अब्र-ऐ-बहारां का
मेरे दामन से उलझे हैं, खिज़ां के ख़ार बाकी हैं

हबीबों के सितम से इस कदर घबरा न मेरे दिल!
अभी तो इस जहाँ में कुछ मेरे अगयार बाकी हैं

ऐ 'साहिल', इस जहाँ में बस तेरी हस्ती इसी से है
के तू बाकी है जब तक ये तेरे अशआर बाकी हैं



खार = कांटें
फितरत = nature
अब्र-ऐ-बहारां = बहार के बादल
हबीब = दोस्त
अगयार = दुश्मन, rival
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