न हो दीदार-ऐ-हुस्न-ऐ-यार तो बेकार बाकी हैं
न बदली फितरत-ऐ-लैला-ओ-कैस-ओ-शीरी-ओ-
वही आशिक हैं ज़िन्दा, उनके कारोबार बाकी हैं
मैं कैसे लुत्फ़ लूं यारो, अभी अब्र-ऐ-बहारां का
मेरे दामन से उलझे हैं, खिज़ां के ख़ार बाकी हैं
हबीबों के सितम से इस कदर घबरा न मेरे दिल!
अभी तो इस जहाँ में कुछ मेरे अगयार बाकी हैं
ऐ 'साहिल', इस जहाँ में बस तेरी हस्ती इसी से है
के तू बाकी है जब तक ये तेरे अशआर बाकी हैं
खार = कांटें
फितरत = nature
अब्र-ऐ-बहारां = बहार के बादल
हबीब = दोस्त
अगयार = दुश्मन, rival
बहुत बढ़िया ग़ज़ल साहिल साहब, एक एक शेर लाजवाब !!!
ReplyDeleteगजल के बहाने बहुत प्यारी बातें कह दीं। बधाई।
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पति को वश में करने का उपाय।
विज्ञान प्रगति की हीरक जयंती।
umda gazal.
ReplyDeletehar sher behtareen.
bahut badhiya gazal hai bhai.
ReplyDeleteएक एक शेर लाजवाब
ReplyDeleteआपको और आपके परिवार को मकर संक्रांति के पर्व की ढेरों शुभकामनाएँ !"
पहली बार पढ़ रहा हूँ आपको और भविष्य में भी पढना चाहूँगा सो आपका फालोवर बन रहा हूँ ! शुभकामनायें
ReplyDeleteइस गजल का हर एक शेर लाजबाब है ...बहुत खुबसूरत अंदाज है आपका प्रस्तुतीकरण का ...आपका आभार ....आप नित नए मुकाम हासिल करते रहें यही कामना है ...
ReplyDeletebloga jagat men kam log hain jinki pakad craft aur khayal dono pe hoti hai..aapki ghazalen bhali bheli lageen... shubhkamnayen... :)
ReplyDeleteyupp...ye padhi hai maine, kayi baar padh chuki hoon...tryin to perfect the beher ;)
ReplyDeletebohot bohot khoobsurat sher hain saare...awesome job buddy :)
prashanshneey.....
ReplyDeleteबहुत खूब साहिल जी ... सच कहा है ... बातें (अशार) बाकी रह जाते हैं ... प्रभावी ग़ज़ल है बहुत ही ..
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