गीली माटी हूँ, मुझे आकार दो
मेरे जीवन को कोई आधार दो
घाव दो या अश्रुओं का हार दो
जो उचित हो प्रेम में, उपहार दो
फिर धरा पर प्रेम बन बरसो कभी
इस मरुस्थल को नदी की धार दो
मोर को सावन, भंवर को फूल दो
सबको अपने हिस्से का संसार दो
स्वप्न के पंछी नयन-पिंजरे में हैं,
दो इन्हें आकाश का विस्तार दो
हूँ अगर जीवित तो तट पर क्या करूँ?
मेरी नैया को कोई मझधार दो
मेरे जीवन को कोई आधार दो
घाव दो या अश्रुओं का हार दो
जो उचित हो प्रेम में, उपहार दो
फिर धरा पर प्रेम बन बरसो कभी
इस मरुस्थल को नदी की धार दो
मोर को सावन, भंवर को फूल दो
सबको अपने हिस्से का संसार दो
स्वप्न के पंछी नयन-पिंजरे में हैं,
दो इन्हें आकाश का विस्तार दो
हूँ अगर जीवित तो तट पर क्या करूँ?
मेरी नैया को कोई मझधार दो