March 26, 2011

ज़िन्दगी तूने हमें ऐसे चुभाये हैं गुलाब

हमराही पर पूर्वप्रकाशित

 
कब से ये काँटों में हैं, क्यों ज़ख्म खाए हैं गुलाब?
अपने खूँ के लाल रंगों में नहाये हैं गुलाब।


फर्क इतना है हमारी और उसकी सोच में,
उसने थामी हैं बंदूकें, हम उठाये हैं गुलाब।


होश अब कैसे रहे, अब लड़खड़ाएँ क्यों न हम,
घोल कर उसने निगाहों में, पिलाये हैं गुलाब।


अब असर होता नहीं गर पाँव में काँटा चुभे,
ज़िन्दगी तूने हमें ऐसे चुभाये हैं गुलाब।


कुछ पसीने की महक, कुछ लाल मेरे खूँ का रंग,
तब कहीं जाकर ज़मीं ने ये उगाये हैं गुलाब।


खार होंगे, संग होंगे, और होगा क्या वहां?
इश्क की गलियों में 'साहिल' किसने पाए हैं गुलाब?

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