September 22, 2012

मुक्तक

हैरतों में ये उजाला पड़ गया
जुगनुओं के मुंह पे ताला पड़ गया
आपकी उजली हंसी को देखकर
चाँद का भी रंग काला पड़ गया

 
 ************************************

खिज़ा में भी फिज़ा के कुछ इशारे मिल ही जाते हैं
अँधेरी रात हो कितनी, सितारे मिल ही जाते हैं
जिसे तेरी मुहब्बत के सहारे मिल गए, उसको
बहुत हो तेज़ तूफां, पर किनारे मिल ही जाते हैं



*************************************

जाने क्यूँ झूठा तराना लिख रहे हो
मौसमों को आशिकाना लिख रहे हो
इक परिंदे सा क़फ़स में कैद हूँ मैं
आप इसको आशियाना लिख रहे हो!

April 25, 2012

आईने के पास जाने से बचे

रस्म-ए-दुनिया को निभाने से बचे,
किस तरह कोई ज़माने से बचे?
 
दोस्तों की सब हकीकत थी पता
इसलिए तो आज़माने से बचे
 
सांस को मैं रोक लूँ कुछ देर, पर
वक़्त कब ऐसे बचाने से बचे

वो भी खुल के कब मिला हमसे कभी
हाल-ए-दिल हम भी सुनाने से बचे
 
जब भी 'साहिल' याद आयें हैं गुनाह,
आईने के पास जाने से बचे
 

January 04, 2012

मेरे लिए फिर सहर है आगे

बहुत सुहाना सफ़र है आगे
के फिर उसी का शहर है आगे

मुझे पता है, सियाह रातों
मेरे लिए फिर सहर है आगे

लगी हुई है जो भीड़ इतनी,
किसी दीवाने का घर है आगे

सफ़र समंदर का, मत शुरू कर
जो डूब जाने का डर है आगे

ये चलना 'साहिल' भी क्या है चलना
ख्याल पीछे, नज़र है आगे


Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...