December 11, 2010

वो खुदा है या है पत्थर, क्या पता?

सब झुकाते हैं जहाँ सर, क्या पता?
वो खुदा है या है पत्थर, क्या पता?

दोस्त भी दुश्मन भी सब हंसकर मिले
किसके पहलू में है खंज़र, क्या पता?

कब न जाने ख़त्म होगा ये सफ़र?
लौट के कब जायेंगे घर, क्या पता?

आज मेरी दोस्त है तू ज़िन्दगी
कल दिखाए कैसे मंज़र, क्या पता?

क़त्ल मुझ को वो नहीं कर पायेगा
चाहता है वो मुझे, पर क्या पता?

कब बहा ले जाएँ 'साहिल' ये तुझे,
नीयत-ऐ-मौज-ऐ-समंदर, क्या पता?

12 comments:

  1. दोस्त भी दुश्मन भी .......अच्छा लगा शेर , मुबारक हो

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  2. आज मेरी दोस्त है तू ज़िन्दगी... ज़िन्दगी की हकीकत बयां करता शेर,
    बढ़िया ग़ज़ल...

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  3. ek ek sher chuninda hai....kya khoob kaha hai dost....bohot khoob...tooooooo good

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  4. 5.5/10

    "आज मेरी दोस्त है तू ज़िन्दगी
    कल दिखाए कैसे मंज़र, क्या पता"

    सुन्दर
    सच में जीवन अनिश्चितता से भरा है.
    अच्छी लगी ग़ज़ल

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  5. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना कल मंगलवार 14 -12 -2010
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..


    http://charchamanch.uchcharan.com/

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  6. बहुत खूब एक एक बात मुकम्मल

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  7. कितना प्यारा लिखते हो.एक एक शे'र दिल को छू जाने वाला है.
    और एक बात बता दूँ मैं हर कहीं,हर किसी रचना के लिए नही लिख देती दिल छू गई.
    'सब झुकाते है जहाँ सर,क्या पता
    वो खुदा है या पत्थर ,क्या पता? देखो एक बार में तुम्हारा शे'र मुझे याद हो गया.सरलता,सहजता और स्मरणीय हो वो रचना अपने आप में अच्छी मानी जाती है.

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  8. आप तो शायरी के नरेश हो भाई
    बहुत खूबियत है कलाम और कलम में

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  9. आप सबके कमेंट्स का बहुत शुक्रिया. यही मेरी उर्जा का स्रोत हैं..

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यहाँ आने का और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियों से नवाज़ने का शुक्रिया!

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