April 25, 2012

आईने के पास जाने से बचे

रस्म-ए-दुनिया को निभाने से बचे,
किस तरह कोई ज़माने से बचे?
 
दोस्तों की सब हकीकत थी पता
इसलिए तो आज़माने से बचे
 
सांस को मैं रोक लूँ कुछ देर, पर
वक़्त कब ऐसे बचाने से बचे

वो भी खुल के कब मिला हमसे कभी
हाल-ए-दिल हम भी सुनाने से बचे
 
जब भी 'साहिल' याद आयें हैं गुनाह,
आईने के पास जाने से बचे
 

15 comments:

  1. वाह..............
    बहुत बहुत बढ़िया साहिल जी..
    बधाई.

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  2. tarif karne se ham kaise bache..... bahut badhiya post

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  3. वाह!... बहुत खूब साहिलजी !!

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  4. एकदम सटीक बात.बहुत खूब.

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  5. बहुत खूब


    सादर

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  6. वाह ...बहुत खूब।

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  7. ख़ूब अच्छे, सारे के सारे !

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  8. उम्दा ग़ज़ल ... आखिर के दो शेर बेहद पसंद आये ...

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  9. achchi gazal hui hai bhai.

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  10. वो भी खुल के कब मिला हमसे कभी
    हाल-ए-दिल हम भी सुनाने से बचे

    Waah...Subhan allah...

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  11. यह ग़ज़ल भी कमाल रही साहिल साहब... बेहद बढ़िया !!!
    "जब भी साहिल याद आए हैं गुनाह, आईने के पास जाने से बचे..." क्या बेहतरीन शेर कहा है आपने...
    लाजवाब ग़ज़ल !!!

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  12. AnonymousJune 03, 2016

    Wah khoob likha hai sahil ne

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यहाँ आने का और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियों से नवाज़ने का शुक्रिया!

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