रस्म-ए-दुनिया को निभाने से बचे,
किस तरह कोई ज़माने से बचे?
दोस्तों की सब हकीकत थी पता
इसलिए तो आज़माने से बचे
सांस को मैं रोक लूँ कुछ देर, पर
वक़्त कब ऐसे बचाने से बचे
वो भी खुल के कब मिला हमसे कभी
हाल-ए-दिल हम भी सुनाने से बचे
जब भी 'साहिल' याद आयें हैं गुनाह,
आईने के पास जाने से बचे
वाह ...बहुत खूब
ReplyDeleteक्या बात है!! बहुत सुन्दर
ReplyDeleteइसे देखें-
फेरकर चल दिये मुँह, था वो बेख़ता यारों!
आईना अब भी देखता है रास्ता यारों!!
वाह..............
ReplyDeleteबहुत बहुत बढ़िया साहिल जी..
बधाई.
tarif karne se ham kaise bache..... bahut badhiya post
ReplyDeleteवाह!... बहुत खूब साहिलजी !!
ReplyDeleteएकदम सटीक बात.बहुत खूब.
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteसादर
वाह ...बहुत खूब।
ReplyDeleteख़ूब अच्छे, सारे के सारे !
ReplyDeleteउम्दा ग़ज़ल ... आखिर के दो शेर बेहद पसंद आये ...
ReplyDeleteachchi gazal hui hai bhai.
ReplyDeleteवो भी खुल के कब मिला हमसे कभी
ReplyDeleteहाल-ए-दिल हम भी सुनाने से बचे
Waah...Subhan allah...
यह ग़ज़ल भी कमाल रही साहिल साहब... बेहद बढ़िया !!!
ReplyDelete"जब भी साहिल याद आए हैं गुनाह, आईने के पास जाने से बचे..." क्या बेहतरीन शेर कहा है आपने...
लाजवाब ग़ज़ल !!!
bahoot khub
ReplyDeleteWah khoob likha hai sahil ne
ReplyDelete