तुम मिलो गर, तो मैं संवर जाऊँ
ज़ख्म हूँ इक, ज़रा सा भर जाऊँ
बन के दरिया भटक रहा कब से,
कोई सागर मिले, उतर जाऊँ
राह में फिर तेरा ही कूचा है
सोचता हूँ, रुकूँ, गुज़र जाऊँ?
भूखे बच्चों का सामना होगा
हाथ खाली हैं, कैसे घर जाऊँ?
दो घड़ी सांस भी न लेने दे,
वक़्त ठहरे, तो मैं ठहर जाऊँ
डूब जाऊं अगर तूफानों में
बन के 'साहिल' मैं फिर उभर जाऊं
ज़ख्म हूँ इक, ज़रा सा भर जाऊँ
बन के दरिया भटक रहा कब से,
कोई सागर मिले, उतर जाऊँ
राह में फिर तेरा ही कूचा है
सोचता हूँ, रुकूँ, गुज़र जाऊँ?
भूखे बच्चों का सामना होगा
हाथ खाली हैं, कैसे घर जाऊँ?
दो घड़ी सांस भी न लेने दे,
वक़्त ठहरे, तो मैं ठहर जाऊँ
डूब जाऊं अगर तूफानों में
बन के 'साहिल' मैं फिर उभर जाऊं
बन के दरिया भटक रहा कब से,
ReplyDeleteकोई सागर मिले, उतर जाऊँ.. waah! bhut khub likha apne...
बहुत खूब!!!
ReplyDeletebeautiful !!
ReplyDeleteबन के दरिया भटक रहा कब से,
ReplyDeleteकोई सागर मिले, उतर जाऊँ.
हर शेर उम्दा....एक से बढकर एक......
वाह वाह क्या बात है, बहुत बेहतरीन ग़ज़ल...
ReplyDeleteराह में फिर तेरा ही कूचा है,
सोचता हूँ रुकूँ, गुज़र जाऊँ... बहुत बढ़िया...
शुभकामनाएं बेहतर से बेहतर लिखते रहने के लिए !!!
खूबसूरत ग़ज़ल.....बच्चे वाला शेर सबसे बढ़िया लगा...
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल....
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ReplyDeleteबन के दरिया भटक रहा कब से
ReplyDeleteकोई सागर मिले, उतर जाऊं
वाह - वा !
ग़ज़ल की ख़ूबसूरती को
चार चाँद लगाता हुआ
निराला और उजियाला शेर ... !!
राह में फिर तेरा ही कूचा है
ReplyDeleteसोचता हूँ, रुकूँ, गुज़र जाऊँ?
भूखे बच्चों का सामना होगा
हाथ खाली हैं, कैसे घर जाऊँ?
ek baar phir behtareen gazal......waah bhai...
लीगल सैल से मिले वकील की मैंने अपनी शिकायत उच्चस्तर के अधिकारीयों के पास भेज तो दी हैं. अब बस देखना हैं कि-वो खुद कितने बड़े ईमानदार है और अब मेरी शिकायत उनकी ईमानदारी पर ही एक प्रश्नचिन्ह है
ReplyDeleteमैंने दिल्ली पुलिस के कमिश्नर श्री बी.के. गुप्ता जी को एक पत्र कल ही लिखकर भेजा है कि-दोषी को सजा हो और निर्दोष शोषित न हो. दिल्ली पुलिस विभाग में फैली अव्यवस्था मैं सुधार करें
कदम-कदम पर भ्रष्टाचार ने अब मेरी जीने की इच्छा खत्म कर दी है.. माननीय राष्ट्रपति जी मुझे इच्छा मृत्यु प्रदान करके कृतार्थ करें मैंने जो भी कदम उठाया है. वो सब मज़बूरी मैं लिया गया निर्णय है. हो सकता कुछ लोगों को यह पसंद न आये लेकिन जिस पर बीत रही होती हैं उसको ही पता होता है कि किस पीड़ा से गुजर रहा है.
मेरी पत्नी और सुसराल वालों ने महिलाओं के हितों के लिए बनाये कानूनों का दुरपयोग करते हुए मेरे ऊपर फर्जी केस दर्ज करवा दिए..मैंने पत्नी की जो मानसिक यातनाएं भुगती हैं थोड़ी बहुत पूंजी अपने कार्यों के माध्यम जमा की थी.सभी कार्य बंद होने के, बिमारियों की दवाइयों में और केसों की भागदौड़ में खर्च होने के कारण आज स्थिति यह है कि-पत्रकार हूँ इसलिए भीख भी नहीं मांग सकता हूँ और अपना ज़मीर व ईमान बेच नहीं सकता हूँ.
ek ek sher chuninda hai dost...ghazlon mein aap waakaii ustaad ho....amazing!
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब ग़ज़ल है ... संवेदनशील शेर हैं सभी ...
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