May 30, 2013

इन लबों की तिश्नगी न यूँ बुझा

दिल की आग को अभी न यूँ बुझा
ये उम्मीद आखिरी, न यूँ बुझा


जीत जाए फिर कहीं न तीरगी
चाँद! अपनी चांदनी न यूँ बुझा


फिर मज़ा न प्यास का मैं ले सकूँ
इन लबों की तिश्नगी न यूँ बुझा

ऐतबार के दीये, ऐ बेवफा!
फिर न जल सकें कभी, न यूँ बुझा

चश्म-ए-आफताब मुझ से यूँ न फेर
राह की ये रौशनी, न यूँ बुझा


4 comments:

  1. आपने लिखा....
    हमने पढ़ा....
    और लोग भी पढ़ें;
    इसलिए शनिवार 01/06/2013 को
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
    पर लिंक की जाएगी.
    आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
    लिंक में आपका स्वागत है .
    धन्यवाद!

    ReplyDelete
  2. इन लबों की तिश्नगी यूं न बुझा ...
    बहुत ही जलावाब शेर है आपकी इस उम्दा गज़ल का ... मज़ा आ गया साहिल साहब ..

    ReplyDelete
  3. सभी शेर बहुत उम्दा. बेहतरीन. बधाई.

    ReplyDelete

यहाँ आने का और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियों से नवाज़ने का शुक्रिया!

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