August 12, 2011

चीख बैठे बेज़ुबां तक

इस ज़मीं से आसमां तक
तू दिखे, देखूं जहां तक

उसने बेशक ना सुना हो
बात तो आई जुबां तक

मैं तो तन्हा था मुसाफिर
लुट गए याँ कारवां तक

यूँ चिराग-ए-शब बुझा था,
हाथ न आया धुआं तक

हद सितम की हो गयी अब,
चीख बैठे बेज़ुबां तक


15 comments:

  1. यूँ चिराग-ए-शब बुझा था,
    हाथ न आया धुआं तक

    हद सितम की हो गयी अब,
    चीख बैठे बेज़ुबां तक

    बहुत खूब ...अच्छी गज़ल

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  2. हद सितम की हो गई अब
    चीख बैठे बेजुबां तक

    क्या बात कही है..
    सरल और कम शब्दों में बहुत गहरे भाव।
    ग़ज़ल पसंद आई।

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  3. प्यारी लगी ये ग़ज़ल

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  4. बेहतरीन पंक्तिया.......

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  5. कम शब्दों की एक बेहद उम्दा गजल। आभार।

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  6. क्या शेर कहे हैं आपने, बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल है !

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  7. सार्थक गजल.....

    स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं.

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  8. सुन्दर रचना, बहुत सार्थक प्रस्तुति
    , स्वाधीनता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
    मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें .

    ReplyDelete
  9. सुन्दर रचना, बहुत सार्थक प्रस्तुति
    , स्वाधीनता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
    मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें .

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  10. मैं तो तन्हा था मुसाफिर, लुट गए याँ कारवां तक...
    बहुत बढ़िया शेर...
    हद सितम की हो गई अब, चीख उठे बेज़ुबां तक...
    वाह क्या शेर है...
    बेहतरीन ग़ज़ल साहिल साहब...

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  11. साहिल जी

    बढ़िया ग़ज़ल है जनाब …

    हद सितम की हो गई अब
    चीख बैठे बेज़ुबां तक

    कमाल का शे'र है … बेमिसाल !
    मुबारकबाद कुबूल फ़रमाएं …


    रक्षाबंधन एवं स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओ के साथ

    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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  12. ek baar phir bahut kamal ki gazal kahi hai bhai,aur wo aakhri sher to bahut achcha laga.

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  13. बेहतरीन , उम्दा

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  14. Saare hi sher bahut khoobsoorat hai bhai! Mubarak ho! :)

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यहाँ आने का और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियों से नवाज़ने का शुक्रिया!

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