इतना न रो के ये नमी अच्छी नहीं लगती मुझे
फिर इस अँधेरी रात में, सोना नहीं भाता मुझे
ये चार दिन की चांदनी अच्छी नहीं लगती मुझे
खोया हूँ उसकी याद में, बाद-ऐ-सबा न शोर कर
वक़्त-ऐ-इबादत दिल्लगी अच्छी नहीं लगती मुझे
तेरे लिए छुपता फिरूं मैं कब तलक यूँ मौत से
इतनी तो तू ऐ ज़िन्दगी! अच्छी नहीं लगती मुझे
मैंने ये पूछा 'आप क्यों पढ़ते नहीं मेरी ग़ज़ल?'
वो हंस के बोले 'बस यूँ ही, अच्छी नहीं लगती मुझे'
कहता है दिल की बात क्यों 'साहिल' भला तू गैर से,
बस इक यही आदत तेरी अच्छी नहीं लगती मुझे
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बाद-ऐ-सबा = सुबह की हवा, morning breeze
bohot bohot hi khoobsoorat ghazal...its just perfect...beher to bohot hi kamaal ki hai..aur sabhi sher....wah...!!
ReplyDeletebahut khob....lajavab gazal padhane ke liye शुक्रिया.
ReplyDeleteबहुत अच्छी ग़ज़ल|
ReplyDeleteमित्र आप और आपकी तरह से अनेक साथी ब्लॉग पर लिख रहे हैं। किसी ने किसी स्तर पर इसका समाज पर असर होता है। जिससे देश की ताकत और मानवता को मजबूती मिलती है, लेकिन भ्रष्टाचार का काला नाग सब कुछ चट कर जाता है। क्या इसके खिलाफ एकजुट होने की जरूरत नहीं है? भ्रष्टाचार से केवल सीधे तौर पर आहत लोग ही परेशान हों ऐसा नहीं है, बल्कि भ्रष्टाचार वो सांप है जो उसे पालने वालों को भी नहीं पहचानता। भ्र्रष्टाचार रूपी काला नाग कब किसको डस ले, इसका कोई भी अनुमान नहीं लगा सकता! भ्रष्टाचार हर एक व्यक्ति के जीवन के लिये खतरा है। अत: हर व्यक्ति को इसे आज नहीं तो कल रोकने के लिये आगे आना ही होगा, तो फिर इसकी शुरुआत आज ही क्यों न की जाये?
ReplyDeleteइसी दिशा में कुछ सुझाव एवं समाधान सुझाने के छोटे से प्रयास के रूप में-
"रुक सकता है 90 फीसदी भ्रष्टाचार!"
आलेख निम्न ब्लॉग्स पर पढा जा सकता है?
http://baasvoice.blogspot.com/2010/11/90.html
http://presspalika.blogspot.com/2010/11/90.html
http://presspalika.mywebdunia.com/2010/11/17/90_1289972520000.html
Yours.
Dr. Purushottam Meena 'Nirankush
NP-BAAS, Mobile : 098285-02666
Ph. 0141-2222225 (Between 7 to 8 PM)
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dr.purushottammeena@yahoo.in
पता नही साहिल जी आपकी गजल किसे अच्छी नही लगी । हमे तो बहुत अच्छी लगी | please remove the word verification
ReplyDeleteBahut Khoob.... har sher pasand aaya
ReplyDeleteआप सबका शुक्रिया !
ReplyDelete6/10
ReplyDeleteदिलकश ग़ज़ल
पता नहीं क्यों ग़ज़ल में नयापन न होते हुए भी शुरुआत के चारों शेर
दिल को बहुत अच्छे लगे. इस ग़ज़ल को पढ़ते हुए मशहूर शायर 'राहत इन्दौरी' की याद आ गयी.
"वक़्त-ऐ-इबादत दिल्लगी अच्छी नहीं लगती मुझे"
बहुत खूब
खूबसूरत गज़ल ...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ग़ज़ल, क्या खूब लिखते हैं आप...
ReplyDeleteबहुत सी शुभकामनाएं !!!
bohot hi umda gazal.... dil ko chu gayi ... keep writing :)
ReplyDeleteमैंने ये पूछा 'आप क्यों पढ़ते नहीं मेरी ग़ज़ल?'
ReplyDeleteवो हंस के बोले 'बस यूँ ही, अच्छी नहीं लगती मुझे'..
बहुत मासूमियत है इस शेर में ... बहुत पसंद आया .. लाजवाब ....
sunder gazal
ReplyDeleteबेहतरीन ग़ज़ल ... एक एक शेर लाजवाब !
ReplyDeleteumda gazal.
ReplyDeletehar sher achchha.
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (29/11/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteतेरे लिए छुपता फिरूं मैं कब तलक यूँ मौत से
ReplyDeleteइतनी तो तू ऐ ज़िन्दगी! अच्छी नहीं लगती मुझे
बहुत ही सुंदर गजल ......हर शेर खूबसूरत है