August 30, 2010

ज़िन्दगी तो ज़िन्दगी भर अजनबी रही

इक कदम हमने ये पीछे गर हटा लिया 
वो समझते हैं के हमने सर झुका लिया

तीरगी जब तीर सी चुभने लगी हमें
दिल में तेरी याद का, दीपक जला लिया

ज़िन्दगी तो ज़िन्दगी भर अजनबी रही
एक पल मैं मौत ने अपना बना लिया

बंदगी हमने तो की दैर-ओ-हरम बगैर 
मूँद के आँखें कहीं भी सर झुका लिया

खुद के बारे मैं वो सबसे पूछता रहा
हाथ मैं उसने न लेकिन आईना लिया

हंस के उसने आपसे की दिल्लगी ज़रा
आपने 'साहिल' न सोचा, दिल लगा लिया!

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तीरगी = अँधेरा, darkness
दैर-ओ-हरम = मंदिर और मस्जिद

1 comment:

  1. बेहतरीन ग़ज़ल...एक एक शेर कमाल है...
    आपने 'साहिल' न सोचा, दिल लगा लिया...वाह !!!

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